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Monday, April 30, 2012

शायद मेरा शहर अब मेरा नहीं रहा !

क्यूंकि कुछ भी तो अपना नहीं है इस बार यहाँ
ना ये गलियाँ, ना ये चौराहे
ना मेरे घर का आँगन,
ना मेरे यार के साथ बिताये वो पल सारे
हर कोई यहाँ बस दौड़ा चला जा रहा है
ना जाने किस चीज़ की तलाश में भटकता जा रहा है
सब कुछ बदला सा है यहाँ
खुशबू भी यहाँ की घुटन सी लगने लगी है
यादें कडवी हो रही हैं
क्या यादें बनाएँगे इस बार?
क्या ले जाएँगे इस अनजान शहर से?
सब कुछ तो छूट गया इस बार
टूट कर बिखर गया इस बार
या फिर सब कुछ वैसा ही है
जो टूटा है वो तो मेरे अंदर ही बिखरा पड़ा है
रात आँखों के कोने से आंसू तकिये पर अपनी जगह ढूँढ लेते हैं
और मुझे बिलखता छोड़ जाते हैं
ये मेरे शहर की आदत नहीं थी कभी
साये की तरह साथ रहता था ये मेरे
पर आज ये कुछ और है, या मैं कहीं और आ गयी हूँ?
क्युकि ना तो हवा हैं वैसी ना ही चौराहे
शायद मेरा शहर अब मेरा नहीं रहा !


4 comments:

KARAN ARORA said...

Yun Na Bayan Karo Halay Dil Oh Meri Jaan, Main Na Badla Hun Na Badlunga, Jo Badla Sa Lag Raha Hai Woh Aaj Hai Aur Jiski Tum Kalpna Kar Rhi Ho Woh Beeta Hua Kal Hai... :)

Aashayein said...

@Karan:
nw dats really beautiful writer sahab :)

yanmaneee said...

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Anonymous said...

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